
भक्ति का अर्थ केवल पूजा, आराधना या धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित नहीं है। भक्ति का वास्तविक अर्थ है
भक्ति का अर्थ केवल पूजा, आराधना या धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित नहीं है। भक्ति का वास्तविक अर्थ है
प्रेम ही सच्ची भक्ति है

भक्ति का अर्थ केवल पूजा, आराधना या धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित नहीं है। भक्ति का वास्तविक अर्थ है — ईश्वर के प्रति प्रेम, जो निष्काम, निरंतर और निर्मल होता है। जब हृदय में प्रेम का प्रकाश जगता है, तब भक्ति अपने आप प्रकट होती है। इसलिए कहा गया है — “प्रेम ही सच्ची भक्ति है।”
जिस प्रकार बिना जल के कमल खिल नहीं सकता, उसी प्रकार बिना प्रेम के भक्ति जीवंत नहीं हो सकती। प्रेम ही वह माध्यम है जो भक्त और भगवान के बीच से सारे अंतर मिटा देता है। जब मनुष्य ईश्वर से सच्चा प्रेम करने लगता है, तब उसका जीवन ही भक्ति बन जाता है।
प्रेम का स्वरूप भक्ति में कैसा होता है?
प्रेम में कोई स्वार्थ नहीं होता। जैसे मीरा ने श्रीकृष्ण से, हनुमान ने राम से, और गोपियों ने गोविंद से प्रेम किया — वह प्रेम पाने या खोने का नहीं, बल्कि समर्पण का था। जहाँ प्रेम है वहाँ भय, द्वेष, और भेदभाव नहीं रह जाते। प्रेम में केवल एक भावना रहती है — “मैं नहीं, केवल तू।”
भक्ति और प्रेम का संबंध
भक्ति का आरंभ श्रद्धा से होता है, किंतु उसकी पराकाष्ठा प्रेम में होती है। श्रद्धा से मन जुड़ता है, पर प्रेम से आत्मा जुड़ जाती है। जब हृदय में प्रेम का संचार होता है, तो भगवान दूर नहीं रहते। वह भक्त के हृदय में स्वयं प्रकट हो जाते हैं।
प्रेमभक्ति का प्रभाव
प्रेमभक्ति मनुष्य को विनम्र, सहनशील, दयालु और करुणामय बना देती है। उसका हृदय सभी जीवों के प्रति दया और अपनापन से भर जाता है। ऐसे व्यक्ति के भीतर ईर्ष्या, क्रोध, और घृणा का स्थान नहीं रहता। वह संसार के हर प्राणी में ईश्वर का दर्शन करने लगता है।
निष्कर्ष
सच्ची भक्ति वही है जिसमें प्रेम की गहराई हो, जिसमें कोई अपेक्षा न हो, केवल समर्पण हो। जब मनुष्य “मैं” और “मेरा” की भावना से ऊपर उठकर ईश्वर से निःस्वार्थ प्रेम करने लगता है, तब उसकी भक्ति पूर्ण हो जाती है।
इसलिए कहा गया है —
👉 “भक्ति बिना प्रेम नहीं, प्रेम बिना भगवान नहीं।”
सच्चा भक्त वही है जिसके हृदय में प्रेम की अनंत ज्योति जलती रहती है।
अनिल माथुर
ज्वाला-विहार, जोधपुर



