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“लोकवादी परंपरा के ध्वजवाहक” — शांतिनिकेतन में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पर संगोष्ठी

“लोकवादी परंपरा के ध्वजवाहक” — शांतिनिकेतन में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पर संगोष्ठी

“लोकवादी परंपरा के ध्वजवाहक” — शांतिनिकेतन में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पर संगोष्ठी

‘कबीर’ से लेकर ‘शिरीष के फूल’ तक — साहित्यिक लोकधारा के अमर पुरोधा को श्रद्धांजलि

शांतिनिकेतन ।

हिंदी भवन में मंगलवार को हिंदी जगत के युगपुरुष आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जयंती स्मृति में एक गरिमामयी संगोष्ठी आयोजित हुई। कार्यक्रम का शुभारंभ आचार्य की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित कर हुआ।

विभागाध्यक्ष डॉ. सुभाषचंद्र राय ने स्वागत उद्बोधन में द्विवेदी जी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए हिंदी भवन की स्थापना और ‘विश्वभारती पत्रिका’ में उनके संपादकीय योगदान को ऐतिहासिक बताया।

युवा पीढ़ी की दृष्टि में आचार्य

छात्र वरुण गौतम ने काशी और आचार्य द्विवेदी के संबंधों पर विमर्श करते हुए उनकी बौद्धिक यात्रा की परतें खोलीं।
यतीन्द्र मिश्र ने उनके जीवन संघर्ष और रचनाकर्म की विशिष्टताओं पर विचार रखे। वहीं शोधार्थी अमन कुमार त्रिपाठी ने ‘कबीर’ कृति के संदर्भ में कहा—
“यदि हजारीप्रसाद द्विवेदी न होते तो कबीर की महत्ता का मूल्यांकन उस गहराई से शायद संभव न होता।”

मुख्य अतिथि का परिप्रेक्ष्य

मुख्य अतिथि, हावड़ा हिंदी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. दामोदर मिश्र ने कहा कि द्विवेदी जी हिंदी भवन, विश्वभारती के संस्थापक आचार्यों में अग्रणी थे। शांतिनिकेतन प्रवास के दौरान उन्होंने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘अशोक के फूल’, ‘शिरीष के फूल’, ‘आम फिर बौरा गए’ जैसी कालजयी कृतियाँ दीं।
“उन्होंने हिंदी साहित्य को शास्त्रीयता की परंपरा से हटकर लोकवादी परंपरा की प्रतिष्ठा दी,” — प्रो. मिश्र।

उपस्थितियाँ और संचालन

इस अवसर पर प्रो. मुक्तेश्वरनाथ तिवारी, प्रो. शकुंतला मिश्र, डॉ. जगदीश भगत, डॉ. मेरी हांसदा, डॉ. राहुल सिंह, डॉ. श्रुति कुमुद, डॉ. सुकेश लोहार सहित बड़ी संख्या में शोधार्थी और छात्र-छात्राएं मौजूद रहे।
कार्यक्रम का संचालन मोहम्मद फिरोज ने किया तथा सिंटू प्रसाद ने धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया।

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