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भारत की धार्मिक राजनीति का हिस्सा है अधिकार हड़पने बनाम अधिकार दिलवाने का संघर्ष

भारत की धार्मिक राजनीति का हिस्सा है अधिकार हड़पने बनाम अधिकार दिलवाने का संघर्ष

भारत की धार्मिक राजनीति का हिस्सा है अधिकार हड़पने बनाम अधिकार दिलवाने का संघर्ष

डॉ. धर्मेन्द्र कुमार यादव

जॉर्ज सेबाइन के अनुसार राजनीतिक सिद्धांत का जन्म किसी सुनिश्चित परिस्थति के सन्दर्भ में होता है और इस कारण उसे समझने के लिए हमें उस काल व् उस परिस्थिति में जाना पड़ता है. मार्क्सवाद के अनुसार राज्य (देश) एक वर्गीय संगठन है जो केवल शक्तिशाली वर्गों के हितों की रक्षा करता है. शक्तिशाली हमेशा निर्धन वर्ग का शोषण करता है और राज्य भी हमेशा शक्तिशाली वर्ग के हितों की रक्षा करता है. कुछ अपवादों को छोड़ कर आजादी के बाद से केंद्र सरकार के शासन के तरीकों ने मार्क्सवाद के विचारधारा की संपूर्णतः पुष्टि की है.

जॉर्ज सेबाइन के द्वारा कही गयी बातों और उनके सुनिश्चित परिस्थिति की बात की जाय तो भारत की जनसँख्या मुख्य रूप से दो वर्गों में बंटा हुआ प्रतीत होता है: शासक बनाम शोषित. शासक वर्गों की जनसँख्या अधिकतम दस फीसदी के आस पास आँका जाता है और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए दस फीसदी असंवैधानिक आरक्षण ने इसकी पुष्टि की है जो सिर्फ सामान्य वर्गों के लिए बिना कोई देरी किये, बिना कोई किन्तु परन्तु के रातो रात लागु कर दिया गया. न कोई डाटा न कोई सर्वेक्षण न कोई मांग न आन्दोलन न कोई चर्चा बस फैसला ऑन द स्पॉट वाली कहानी.

जबकि शोषित वर्ग में बाकी बचे अन्य नब्बे फीसदी आबादी जिसमें दलित, पिछड़े, आदिवासी, अधिकांश मुसलमान, सिख, बौद्ध आदि आते हैं उन्हें मिली संवैधानिक आरक्षण को न तो समय से लागु होने दिया न उसे सफलतापूर्वक लागु किया. इन नब्बे फीसदी आबादी को ठगने के लिए प्रतिभा नामक शब्द का प्रयोग कर ‘नॉट फाउंड सूटेबल’ का अविष्कार कर बहुतायत में प्रयोग किया. जॉर्ज सेबाइन की सुनिश्चित परिस्थिति यही है कि भारतीय आबादी शासक और शोषित में विभाजित है और आप दो में से कोई एक को हीं चुनेंगे भले हीं नियत में खोट हो.

आप शासक वर्ग के साथ मिलकर शोषितों का वोट ले लेंगे लेकिन काम शासकों के लिए करेगे जबकि इसका उल्टा करना लगभग असम्भव है क्योंकि शासक वर्ग के लोग राजनितिक रूप से जागृत होते हैं और उन्हें पता है कि शोषित वर्ग का भला करना मतलब शासक वर्ग के अनैतिक अप्राकृतिक अधिकारों में कटौती करना है. अतः परिस्थितियां स्पस्ट है कि आप या तो शासक के साथ हैं या शोषित के साथ. अफ़सोस इस बात का है कि शोषित वर्ग के अधिकाश मतदाता इससे अनभिज्ञ होते हैं क्योंकि उन्हें राजनीति के फायदे समझ हीं नहीं आते हैं.

भारत की राजनीति स्पष्ट रूप से शासक बनाम शोषित की रही है. शासक वर्ग ने जहाँ एक तरफ धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर शोषितों के अधिकारों का हनन किया है वहीँ दूसरी तरफ शोषितों के लिए संभावित फायदा पहुँचाने वाली संस्थाओं को या तो बर्बाद किया है या फिर निजीकरण. शासक वर्ग की राजनीति धार्मिक होने के कारण एक विशेष समुदाय को आर्थिक रूप से हीं नहीं बल्कि सामाजिक रूप से भी मजबूत बनाया जा रहा है वहीँ धार्मिक स्थलों के नाम पर गरीबों की जमीने छिनी जा रही है. चंद पैसे का एक टुकड़ा देकर वही जमीने अमीर पूंजीपतियों को लाखों करोड़ों में बेचीं जा रही है. जबकि होना तो यह चाहिए था कि जिन गरीब किसानों की जमीने छिनी गयी उसे कुछ जमीन का टुकड़ा देकर उसके लिए व्यवसाय की व्यवस्था की जाती. लेकिन हो उल्टा रहा है अमीर अमीर हो रहे हैं गरीब गरीब हो रहे हैं और यह सरकार के आशीर्वाद से हो रहा है. पूंजीपतियों का करोड़ों अरबों का लोन माफ़ कर दिया जाता है चंद करोड़ राजनितिक चंदा लेकर जबकि गरीब किसान मजदुर का चंद हजार के लोन में घर जमीन तक कब्ज़ा हो जाता है और शर्मिंदगी से उन्हें आत्महत्या करना पड़ता है.

क्या अजूबा राजनितिक सोच हैं कि जिन इंसानों ने अपने फायदे के लिए ईश्वर की रचना की उसी ईश्वर की दुकान को सजाने के लिए गरीब किसानों की जमीने छिनी जाती है. जिस ईश्वर के लिए इंसानों की बलि ली जा रही है उस ईश्वर ने अपने लिए एक झोपड़ी तक नहीं बनाया और राजनीति की आड़ में शासक उसी के लिए आलीशान मकान बनाता है. वोट इंसानों से लेता है और घर भगवानों का बनाया जाता है. आखिर क्यों इसके पीछे आम नागरिकों को गुमराह किया जाता है? क्योंकि उन्हें पता है कि सरकार द्वारा निर्धारित फण्ड अगर ईमानदारी से लागु किया जायेगा तो इसका नब्बे फीसदी फायदा नब्बे फीसदी शोषित वर्ग को होगा जो शासक वर्ग कभी नहीं चाहेगा. शासक वर्ग को भूखे नंगे बेकार बेरोजगार बेगार जनता ज्यादा पसंद होता है क्योंकि उन्हें कम मजदूरी में नौकर चाहिए, चपरासी चाहिए, ड्राईवर चाहिए, कुत्ते पालने वाला वफादार आदमी चाहिए आदि. मतलब शोषण करने का आजीवन क़ानूनी लाइसेंस चाहिए वो भी उन्हें बेबस बनाकर.

याद हैं न कि अंग्रेजों ने गरीब किसानों की जमीन छिनने के लिए क्या नौटंकी किया था? कहा जाता है कि डलहौजी ने 1894 में ‘लैंड एक्वीजीशन एक्ट’ लाया था जिसके तहत वो गाँव गाँव में जाकर अदालतें लगाता था और ऐलान करता था कि सभी लोग अपनी जमीन की कागज लेकर आये. उस समय तक भारत में जमीन कागजों पर लिखी नहीं जाती थी. डलहौजी ने कानून बनाया था कि जिसके पास कागज नहीं है जमीन उसकी नहीं है. वो सारी जमीने ईस्ट इंडिया कंपनी की है. एक एक दिन में पच्चीस पच्चीस हजार किसानों से जमीने छिनी गयी थी.

आजादी के बाद भी काले अंग्रेजों ने शायद उस कानून को ख़त्म नहीं किया. आज का भारतीय शासक भी तो ईश्वर और चंदादाता पूंजीपतियों के लिए धर्म और पूंजी निवेश का सहारा लेता है. शोषितों के लिए जारी फण्ड का सही से कभी उपयोग नहीं किया गया अन्यथा देश में इतनी दुर्दशा तो नहीं होती कि किसान कर्ज से आत्महत्या करता, लोग भूखे मरते, 80 करोड़ को अनाज मुफ्त में बाँटना पड़ता, मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था न होती, शिक्षा को माफियायों के सहारे न छोड़ा जाता, नागरिकों के स्वास्थ को मेडिकल माफियाओं के हवाले नहीं किया जाता, दस की दवाएं दो सौ तिन सौ में नहीं बिकता, मेडिकल अरेस्ट जैसी घटनाएँ नहीं होती, कोरोना में थाली ताली नहीं बजाना पड़ता.

मार्क्सवाद कहता है कि राजनीति वर्गीय समाज की देन है तथा इन पर परस्पर विरोधी वर्गों के उन्मूलन पर हीं नागरिक के एक समृद्ध समाज की स्थापना संभव होगी. यहाँ का समाज तो 8 से ज्यादा धर्मों और 6743 से ज्यादा जातियों में विभाजित है. एक दो तीन वर्ग होता तो सामंजस्य बनाना आसन होता लेकिन इतने वर्गों में अंदरूनी विभाजित देश को कैसे एक किया जाय? भला हो बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर का जिन्होंने संविधान में इन सभी के लिए अधिकार तो निर्धारित कर दिए लेकिन शासकों ने इसे भी सफल होने नहीं दिया. आज की तारीख में शोषितों के अधिकार के लिए संघर्ष करने वाले समाजवादी नेताओं ने जो सामाजिक न्याय के लिए ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा दिया है उससे बढ़ कर कोई हल हो नही सकता है. मार्क्सवाद का समृद्ध समाज बनाने के लिए इससे बेहतर विकल्प हो हीं नहीं सकता है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या यह देश आजीवन शासक और शोषित वर्ग में बंटा रहेगा?

नब्बे फीसदी आबादी तो सदियों से हीं अधिकार खोते आये हैं अब तो उन्हें उनका अधिकार दे दो और भारत की राजनीति को अधिकार हड़पने से बदल कर अधिकार देने वाले सकारात्मक राजनीति की विचारधारा को गढ़ो. कब तक शोषितों को अधिकार दिलवाने की राजनीति करने वाले श्री लालू प्रसाद यादव, सुश्री मायावती, स्व. मुलायम सिंह यादव, स्व. कांशीराम, स्व. वी. पी. सिंह, स्व. अर्जुन सिंह, स्व. कर्पूरी ठाकुर, आदि नेताओं को जलील कर शोषितों का शोषण करते रहोगे? क्या भारत का अंदरूनी सामाजिक संघर्ष कभी ख़त्म होगा?

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