धर्म एवं संस्कृतिदेश

रश्मिरथी जिसका कि अर्थ है “सूर्यकिरण रूपी रथ का सवार”, यह रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्ड काव्य है

रश्मिरथी जिसका कि अर्थ है "सूर्यकिरण रूपी रथ का सवार", यह रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्ड काव्य है

रश्मिरथी (खण्ड काव्य) श्री रामधारी सिंह दिनकर की कृति की समीक्षा

डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल, मध्यप्रदेश

रश्मिरथी जिसका कि अर्थ है “सूर्यकिरण रूपी रथ का सवार”, यह रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्ड काव्य है। यह कर्ण के चरित्र पर आधारित है जिसमेँ की सात सर्ग है। उन्होंने कर्ण के जीवन चरित्र को महाभारत के कथानक से ऊपर ले जाकर उसके नैतिकता एवं विश्वनीयता की नई भूमि पर ला खड़ा किया है। एवं उसके गौरव शाली व्यकितत्व से विभूषित किया है। उन्होंने अपने इस खण्ड काव्य में सम्पूर्ण सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों को नए सिरे से परिभाषित किया एवं समझा है। फिर चाहे गुरुशिष्य की मर्यादा हो या बिन ब्याही मातृत्व या विवाहित मातृत्व या धर्म या छल-प्रपंच हो, सभी का निर्वाह पूर्ण रूप से करने का प्रयास किया है। युद्ध मे भी मानवीय उच्च गुणों की पहचान के प्रति ललक का काव्य बन गया है यह खण्ड काव्य। ‘रश्मिरथी’ यह भी उदघोषित करता है कि जन्म अवैधता से कर्म की वैधता नष्ट नही होती, अपितु वह अपने कर्मों के माध्यम से मृत्यु या पूर्व जन्म में एक और जन्म ले लेता है। अंततः किसी भी मनुष्य का मूल्यांकन उसके जन्म से या उसके वंश से भी नही बल्कि उसके कर्म पर निर्धारित होता है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने राष्ट्रवाद के राष्ट्रवाद के साथ-साथ दलित मुक्ति चेतना का भी स्वर दृष्टिगत होता है। रश्मिरथी इसी का प्रमाण है।
दिनकर को समाज में संस्थागत हो चुके अन्याय के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति के लिए एक ऐसे युवक की तलाश थी, जिसका चरित्र उदात्त हो साथ ही वह वीर पराक्रमी हो, कर्ण से बेहतर और कोई युवा उन्हें दिखलाई नही दिया। महाभारत का यह परम योद्धा मानस परिकल्पित नायक का समरुप बन उन्हें मिल गया। महाभारत में कृष्ण ने ही इस योद्धा के प्रति अपने उदगार में कहा है-
त्वमेव कर्ण जानासि वेदवादन सनातनम।
त्वमेव धर्म शास्त्रेषु सूक्ष्मेषु परिनिष्ठित:।।
सिंहषर्भ गजेंन्द्राणां बलवीर्या पराक्रम:।
दीप्तिकांतिदयुतिगुणै: सूर्यन्दुज्वलनोपम:।।
युयुप्सा और संघर्ष कर्ण के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग है। क्योंकि कर्ण के अंदर एक महान योद्धा होने की सम्भावन उनके बीजरूप में ही विद्यमान थी। इस संभावना को विनष्ट करने की गुरू द्रोणाचार्य ने हर संभव कोशिश की थी इसलिए उन्होंने उसे शिष्य रूप में भी अस्वीकार किया था। किंतु कर्ण तो मरुस्थल में एक जिजीविषा लेकर जन्मा था, जो रेत में भी आद्रता को सोख लेता है। ज्ञान पर एकाधिकार उसे स्वीकार नही था, फिर भी वह अपने व्यक्तिगत परिचय को छुपाये रखता है। वह जिस क्रूर सत्य के तुलना में नगण्य रहा है, फिर भी वह शापित हुआ है।
यह ये दुष्चेष्टाएँ आज के समय में अप्रासंगिक हो सकती है क्योंकि आज ये वैयक्तिकता एवं व्यक्तित्व की बातें अपने सामान्य है। परिवर्तन अवश्यभांवी है। स्वयं दिनकर जी कहते है- आगे मनुष्य उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके सामर्थ्य से सूचित होगा, उस पद का नहीं जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है, वह भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्ण का दलित आत्मगौरव युवावस्था में अर्जुन को चुनौती देने के बहाने पूरी व्यवस्था को चुनौती देता है–
“तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नई कलाएं भी सिखला सकता हूँ।।
जहाँ पर उनको वैयक्तिकता पर शोर सुनाई देता है, वे उसे स्वीकार नही करते अपितु अपने अंदर विद्यमान आक्रोश को परिभाषित करते है-
जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड,
मैं क्या जानूँ ? जाति है ये मेरे भुजदंड।
पढो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज प्रकाश,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।।
ह्रदय के विस्तार में ही परपीड़ा की शानू6 की क्षमता मनुष्य का एक गुण है। इसलिए वह प्रत्युपकार की इच्छा किये बिना अपना सर्वस्व भी उत्सर्ग कर देता है। कर्ण का दान इसी का पर्याय है। दिनकर की दृष्टि में दान करने जी क्षमता उदात्त चरित्र का प्रमुख लक्षण है। अपनी क्षुधा पर विजय प्राप्त करना सरल है किंतु दूसरे की क्षुधाग्नि को शांत करना सबसे बड़ा आत्मबल है यहाँ पर कर्ण का व्यक्तित्व ऐसे ही बिरले व्यक्तित्व का परिचायक है। जहाँ पर देवराज इन्द्र के हाथों छला जाता है, वह उनकी सारी मंशा जानकर भी अपने चरित्र को उज्ज्वल बना लेता है। वह अपनी मां कुंती के उपेक्षित भाव के फलस्वरूप भी अपने मित्र धर्म का निर्वाह के अर्थ अर्जुन को छोड़कर शेष भाइयों को न मारने का संकल्प लेता है।
द्रोपदी का चीरहरण भी एक ऐसा ही प्रसंग है जहाँ कर्ण का आहत अभिमान उसे नारी की अस्मिता की रक्षा के लिए विरोध का स्वर भी नही उठता, सिर्फ एक यही गुण है जहाँ पर उसके चरित्र का हनन हुआ है किंतु उसके अंदर इस कलंक के पश्चाताप को धोने का हर संभव प्रयास करता है। एक यही प्रसंग को छोड़ दिया जाए तो कहीं पर भी कर्ण का सर्वथा निष्कलंक दृष्टिगत होता है।
कर्ण ने कहीं पर भी अधर्म का आश्रय नही लिया है। जबकि अर्जुन द्वारा उसे छलपूर्वक अपने बाणों से बींध डाला था।
दिनकर ने अपने खण्ड काव्य रश्मिरथी में कर्ण के चरित्र को अपने उद्गार के द्वारा नवीन जीवन मूल्यों की स्थापना कितना सफल हुए है, ये उनके पाठक ही अवलोकन कर सकते है।।

Join WhatsApp Channel Join Now
Subscribe and Follow on YouTube Subscribe
Follow on Facebook Follow
Follow on Instagram Follow
Download from Google Play Store Download

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button