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फुर्सत के फसाने मत सुनाओ मुझे, मैंने अपनी नींदें भी तन्हाई में बेच डाली हैं।
फुर्सत के फसाने मत सुनाओ मुझे, मैंने अपनी नींदें भी तन्हाई में बेच डाली हैं।
ख्वाहिशों की राख
फुर्सत के फसाने मत सुनाओ मुझे,
मैंने अपनी नींदें भी तन्हाई में बेच डाली हैं।
हर मोड़ पर दिल को समझाया है खुद से,
जो भी मिला, उसी को किस्मत बना डाली है।
नसीहतों की आदत नहीं मुझे,
मैंने हर दर्द हंसकर छुपा डाली है।
जो लफ़्ज़ न कह सका कोई और से,
वो बातें भी दीवारों से सुना डाली है।
अब शिकवे भी करने छोड़ दिए हैं मैंने,
जिससे उम्मीद थी, उसी ने रुसवा कर डाली है।
अब आईना भी नज़रें चुराने लगा है,
चेहरे पे मुस्कान, रूह में सियाही पला डाली है।
किसी मोहर की ख्वाहिश नहीं अब मुझको,
मैंने तन्हा रहकर ज़िन्दगी निभा डाली है।
अब फ़ुर्सत नहीं तक़दीर से लड़ने की,
जो चल रहा है, उसी को राह बना डाली है। विकाश कुमार की कलम से
स्नाकोत्तर
समस्तीपुर कॉलेज, समस्तीपुर
(ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा)
ग्राम+पो० बिरनामातुला थाना: अंगारघाट जिला: समस्तीपुर (बिहार)