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मध्यप्रदेश : बीमारू प्रदेश से मृत्यु प्रदेश तक!

मध्यप्रदेश : बीमारू प्रदेश से मृत्यु प्रदेश तक!

मध्यप्रदेश : बीमारू प्रदेश से मृत्यु प्रदेश तक!
(आलेख : जसविंदर सिंह)

मध्यप्रदेश आजकल कई वजहों से चर्चा में हैI मगर यह चर्चा प्रदेश के लिए इतना दुखद हैं कि इसने कई घरों में गूंजती किलकारियों को खामोश कर दिया हैI अब उन घरों में मातम है। परिजनों की आहें और चीत्कारें हैंl यह स्थिति कमीशन की हवस ने पैदा की है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक एक के बाद एक, अब तक 26 मासूम बच्चे मौत के मुंह में पहुंच चुके हैंl

प्रश्न यह है कि क्या इन मासूमों की जिंदगी बचाई जा सकती थी? क्या माओं की गोद को सूना होने से रोका जा सकता था? यह सम्भव था, लेकिन उसके लिए जिम्मेदार और जन सरोकारों वाली सरकार का होना पहली और बुनियादी शर्त है। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है। पर्ची से निकला मुख्यमंत्री है। और लूट है। यही लूट-खसोट मासूमों को निगल गई है।

इसकी शुरुआत छिंदवाड़ा जिले के एक बच्चे की मृत्यु से हुई। जब उसी समय सरकार चेत जाती, तो बाद के 25 बच्चों का जीवन बचाया जा सकता था। जब इन बच्चों की हालत बिगड़ने के बाद उन्हें उपचार के लिए नागपुर रिफर किया गया, तब वहां के डाक्टर ने खांसी के उस जहरीले सिरप को बंद करने की सलाह दी थी। मगर उसके बाद भी बच्चों को खांसी पर वही सिरप दिया जाता रहा। जब बच्चों की मृत्यु की संख्या सात हो गयी, तब जाकर इसे छिंदवाड़ा में बैन किया गया। प्रदेश के दूसरे जिलों में यह उसके चार दिन बाद तक बिकता रहा | मासूम बच्चे मौत के मुहं में पहुंचते रहे। बाद मे जबलपुर में उस सिरप के डीलर के यहां भी सिरप के स्टॉक को जप्त कर लिया गया, लेकिन तब तक करीब पांच लाख सिरप प्रदेश के विभिन्न अस्पतालों और मेडिकल स्टोर्स पर सप्लाई हो चुके थे, उनके संबंध में सरकार और प्रशासन ने अब तक कोई फैसला नहीं लिया हैI जाहिर है कि इतने बड़े हादसे के बाद भी खतरा टला नहीं है। सरकार की दिलचस्पी मासूमों की मौतों पर लीपापोती करने की है। अभी तक हुई मौतों की अगर सामाजिक पृष्ठभूमि की पड़ताल की जाए, तो सारे ही बच्चे आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और कुछ पिछड़ा वर्ग समुदाय से हैं। आर्थिक दृष्टि से सारे बच्चों का संबंध गरीब परिवारों से है|

सरकार की जिम्मेदारी

जब भाजपाई सरकार बच्चों की मौतों को छुपाने और लीपापोती करने में लगी है, तब इन मौतों की खबर दुनिया भर में फैल गयी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत सरकार से पूछा है कि यह सिरप भारत ने और किस-किस देश को सप्लाई किया है, ताकि वहां इस पर बैन लगाने के लिए वहां की सरकार को सूचित किया जा सके।

विडंबना यह है कि जब सिरप बनाने वाली कंपनी के मालिक को गिरफ्तार कर लिया गया है, तब डॉ. मोहन यादव सरकार यह प्रचारित करने की कोशिश कर रही है कि अब सब ठीक हो गया है। प्रदेश की जनता के स्वास्थ्य ही नहीं, जिन्दगी के साथ होने वाला खिलवाड़ आज भी जारी है। सरकार यह बताने के लिए तैयार नहीं है कि जीवन रक्षक दवाओं की जांच करने की क्या व्यवस्था है?

प्रदेश में कुल तीन ड्रग लैब हैं। राजधानी भोपाल की लैब में साल भर मे 2000 दवाओं की जांच की जा सकती है। जबलपुर और इंदौर की ड्रग लैब को जोड़ कर प्रदेश मे सिर्फ 6000 दवाओं के सैंपल जांचने की क्षमता है। जबकि प्रदेश में 40 हजार दवाओं के सैंपल जांच के लिए आते हैं। इसका सीधा-सा अर्थ है कि प्रदेश में 40 हज़ार में से 34 हज़ार दवाएं तो बिना जांच किए ही मरीज़ों को दी जा रही हैंl भाजपा राज में आम नागरिकों का जीवन कितना असुरक्षित है, इसका प्रमाण इसी से मिल जाता है कि प्रदेश में 85 प्रतिशत दवाएं तो बिना जांच के ही मरीजों को दी जा रही हैं, अगर वह फिर भी सुरक्षित हैं तो यह उनका भाग्य है।

भाजपा की प्रदेश सरकार जिस तथ्य को छुपा रही है, वह यह है कि प्रदेश की इन तीन ड्रग लैब में सिर्फ चार ड्रग एनालिस्ट हैं l इनके अलावा 12 लोग आउटसोर्स पर रखे गए हैं। एक सैंपल की जांच में करीब दस घंटे लगते है। दिन भर में दो या अधिकतम तीन सैंपलों की जांच हो पाती है। अगर सारे सैंपल जांचने हों, तो कम से कम 100 ड्रग एनालिस्ट चाहिए। इधर आउटसोर्सिंग वालों को जोड़ कर भी संख्या 16 पर अटक जाती है। 84 फीसदी एनालिस्ट की कमी के बाद भी भाजपा यह समझाने की कोशिश कर रही है कि प्रदेश का स्वास्थ्य ढांचा चुस्त-दुरुस्त है।

दूसरा सवाल यह है कि सरकार की प्रतिबद्धता किसके साथ है? प्रदेश की जनता के साथ है या दवा कंपनियों के साथ? अमानक दवाएं भी प्रदेश में सरकारी अस्पतालों में मरीजों को वितरित की जा रही है। सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 68 अमानक दवाएं आज भी सरकारी अस्पतालों में मरीजों को दी जा रही हैं। इन दवाओं में गर्भवती महिलाओं को ऑपरेशन से पहले और बाद मे दी जाने वाली दवा, पेट के इलाज की दवा, फेफड़ों की सूजन को रोकने की दवा, रक्त संबंधी गडबड़ी को रोकने के लिए दी जाने वाली दवा, हार्ट अटैक के समय आपात स्थिति में दी जाने वाली दवा, वायरस के रोकथाम की दवा और किडनी के मरीजों को दी जाने वाली दवा शामिल है। भाजपा सरकार का मकसद सिर्फ कमीशन खाना है l इसलिए ब्लैकलिस्टेड कंपनियों को ही बार-बार दवा सप्लाई के ठेके दिए जा रहे हैं।

अस्पतालों की व्यवस्था चूहों के हवाले

प्रदेश के अस्पतालों और सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे की स्थिति भाजपा राज में बद से बदतर होती जा रही है। प्रदेश के पश्चिमी भाग मालवा और निमाड़ में इंदौर का एम वाई महाराजा यशवंत) अस्पताल, जनता का जीवनदानी अस्पताल माना जाता है। लेकिन खांसी की मामूली बीमारी से मरे इन 26 बच्चों से पहले ही दिल दहला देने वाली घटना घटी| वहां नर्सरी में भर्ती दो नवजात शिशुओं को चूहों के काटने से मौत हो गई। यह खबर अखबार में छपी। प्रशासन और सरकार ने पहले इस घटना को नकारने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन जब एक और बच्चे की चूहे के काटने से म्रत्यु हो गयी और चूहों के फोटो मीडिया और सोशल मीडिया पर वायरल होने लगे, तो प्रभारी डॉक्टर को निलंबित कर यह मान लिया गया कि अब व्यवस्था सुधर गई है।

इसके बाद उत्तरी मध्यप्रदेश की बारी आई। ग्वालियर का जयारोग्य अस्पताल सिर्फ इस क्षेत्र के आठ जिलों का ही सबसे बड़ा अस्पताल नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश के इटावा से लेकर मैनपुरी तक कई जिलों के मरीज़ भी इलाज के लिए इसी अस्पताल की ओर रुख करते हैं। वहां चूहों ने कोई हादसा तो नहीं किया, लेकिन इंटेंसिव केयर यूनिट में चूहों की दौड़ भाग से मरीज़ ही नहीं, उनके परिजन भी चिंतित हो उठे। यह घटना भी अखबारों में आने के बाद कार्यवाही के नाम पर एक डॉक्टर के खिलाफ कार्यवाही कर व्यवस्था सुधार का दावा कर दिया गया।

मनुवादी सरकार

हंगामा होने के बाद मुख्यमंत्री ने नागपुर में इलाज करवा रहे बच्चों और उनके परिजनों से मुलाकात की। मुख्यमंत्री कुछ मृतक बच्चों के परिजनों को सांत्वना देने उनके घर भी पहुंचे। लेकिन आरएसएस द्वारा नियंत्रित भाजपा सरकार का मनुवादी रवैय्या यहां भी देखने को मिला। पिछले कई सालों से प्रदेश सरकार मृतकों के परिजनों को एक करोड़ रुपये मुआवजा दे चुकी है। मगर यह बच्चे तो वर्णव्यवस्था के निचले पायदान से ताल्लुक रखते थे। वे दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के परिवारों के बच्चे थे। इसलिए सरकार ने उनके परिजनों को मुआवजे के नाम पर राहत देने की बजाय आहत कर उनके जख्मों पर मरहम के नाम पर नमक ही छिड़का है। भाजपा सरकार ने उनके लिए सिर्फ चार-चार लाख रुपए मुआवजे की घोषणा की है। यह राशि भी इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रशासनिक प्रक्रिया में अटकी हुई है।

जिम्मेदार कौन?

सबसे बड़ा यह सवाल है कि 26 मासूम बच्चों की खांसी का जहरीला सिरप पिलाने से हुई मौतों, और इससे पहले इंदौर के एम वाई अस्पताल में चूहों के काटने से नवजात शिशुओं की मौतों की जिम्मेदारी लेने के लिए सरकार तैयार नहीं है। राजनाथ सिंह बहुत पहले ही कह चुके हैं कि भाजपा सरकार में इस्तीफा देने की परंपरा नहीं है। प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री उप मुख्यमंत्री भी हैं। वे अभी तक हुई कार्रवाई से संतुष्ट हैं। कोई इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है कि बिना सैंपल की समुचित जांच हुए जहरीला सिरप बच्चों को क्यों पिलाया गया। नागपुर के डाक्टर की ओर से चेतावनी देने के बाद भी उसका वितरण 26 बच्चों की मौत के बाद ही क्यों बंद हुआ? आज भी 85 प्रतिशत दवाएं बिना जांच के मरीजों को क्यों दी जा रही हैं? क्यों 68 अमानक दवाओं का वितरण आज भी सरकारी अस्पतालों में जारी है? और क्यों अस्पतालों का प्रबंधन चूहों के हवाले कर दिया गया है? ये सारे सवाल निरूत्तरित हैं। इधर उप मुख्यमंत्री खामोश हैं और मुख्यमंत्री मोहन यादव बिहार के मतदाताओं को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे तेजस्वी और अखिलेश से ज्यादा बड़े यादव हैं

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