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शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरा पूर्णिमा व रास पूर्णिमा भी कहते हैं। हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं।

शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरा पूर्णिमा व रास पूर्णिमा भी कहते हैं। हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं।

शरद पूर्णिमा का महत्व – डॉ. बी. के. मल्लिक

शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरा पूर्णिमा व रास पूर्णिमा भी कहते हैं। हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं।

आश्विन पूर्णिमा में पूरे वर्ष में केवल इसी दिन चन्द्रमाँ सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। शरद पूर्णिमा के रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है तभी तो इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है एवं प्रसाद के रूप में लेते हैं।

शरद पूर्णिमा की कहानी
एक साहूकार के दो पुत्रियाँ थी।दोनों पुत्रियाँ पूर्णिमा का व्रत रखती थी। बड़ी पुत्री पूरा व्रत करती थी परंतु छोटी पुत्री अधूरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान के जन्म होते ही मर जाती थी। उसने पण्डितों से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान का जन्म होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पूरा विधिपूर्वक व्रत करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है।

उसने पण्डितों के परामर्श पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लड़का हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लड़के को पीढे पर लिटाकर ऊपर से कपड़ा ढक दिया। फिर बड़ी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढा दे दिया। बड़ी बहन जब पीढे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छूते ही रोने लगा। बड़ी बहन बोली-” तू मुझे कलंक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“ तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “फिर नगर में उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया।

इस दिन मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे, धनवान व्यक्ति ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए १०० दीपक जलाए। फिर घी मिश्रित खीर बनायें और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमाँ की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (३ घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक निर्धनों और दीन-बन्धुुुओं को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही माङ्गलिक गीत गाकर तथा मङ्गलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनन्तर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा किसी दीन दुःखी को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी।

इस प्रकार प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अन्त होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।

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