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तमस प्रचुर पर चल रही हूँ मैं ! अजनबी रास्तों पर
तमस प्रचुर पर चल रही हूँ मैं ! अजनबी रास्तों पर
*अजल ढूंढ रही हूँ मैं*
है तमस प्रचुर
पर चल रही हूँ मैं !
अजनबी रास्तों पर
अपना घर ढूंढ रही हूं मैं !
अब ठोकरों की फिक्र नहीं मुझे
फिर भी
गुमनाम मंजिलों को
ढूंढ रही हूँ मै !
किसी को हाथ
थामने न दिया
फिर क्यूँ कंधा
ढूंढ रही हूँ मैं !
थम न सकी
कभी किसी के लिए भी
और स्वयं आसरा
ढूंढ रही हूँ मैं !
इन नन्हें कदमों को
कभी गति न दी
और सफर ढूंढ रही हूँ मैं !
अपना ही साया
साथ नही
हमसफ़र ढूंढ रही हूँ मैं !
स्वयं ही नही जानती
जाने क्या ढूंढ रही हूँ मै !
चार दिन की
नन्हीं-सी जिंदगी है ‘मेहा’
और स्वयं के लिए
अजल ढूंढ रही हूँ मैं !!
डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल, मध्यप्रदेश